- संपादकीय
नेपाल को फिर याद आने लगे राजशाही के पुराने दिन
सुशील कुमार
अभी 17 वर्ष भी नहीं बीते, नेपाल लोकतंत्र से थक गया। 1 जून 2001 को नेपाल के राजा वीरेन्द्र वीर विक्रम शाह और उनकी पत्नी रानी ऐश्वर्या परिवार के सात सदस्यों को क्राउन प्रिंस दीपेन्द्र शाह ने नारायण हिती पैलेस में शाही भोज के दौरान गोलियों से भून दिया था और स्वयं को भी गोली मार ली थी। बाद में उनका भी निधन हो गया। राजा बीरेंद्र की मौत के बाद उनके भाई ज्ञानेंद्र शाह को ताज सौंपा गया, लेकिन उनकी लोकप्रियता कभी बीरेंद्र जैसी नहीं रही। उस समय नेपाल माओवादी विद्रोह के दौर से गुजर रहा था। 1996 से शुरू हुआ यह आंदोलन राजशाही के खिलाफ था और देश में गरीबी, बेरोजगारी और असमानता के मुद्दों को उठा रहा था। इस माओवादी आंदोलन (1996-2006) का नेतृत्व प्रचंड (पुष्पकमल दहल) कर रहे थे। वे नेपाल से राजशाही को समाप्त कर एक लोकतांत्रिक गणराज्य स्थापित करना चाहते थे। जनता में राजशाही के प्रति असंतोष बढ़ता जा रहा था। अंततः उनकी कोशिशें रंग लायीं और वर्ष 2008 में नेपाल में राजशाही का अंत हो गया। मात्र 17 वर्ष के अवधि में ही नेपाल की जनता का न केवल लोकतंत्र से मोहभंग हुआ है बल्कि वह देश की संवैधानिक धर्मनिरपेक्षता को समाप्त करने पर भी अड़ गयी है। सवाल यह है कि ऐसा क्या हो गया कि नेपाल के लोग लोकतंत्र के खिलाफ सड़कों पर उतर आये और राजा आओ देश बचाओ के नारे लगाने लगे। इतना ही नहीं, वे तोड़फोड़ और उपद्रव पर इस तरह उतारू हो गये कि नेपाल पुलिस को गोली चलानी पड़ी और राजधानी काठमांडू में कर्फ्यू लगाना पड़ा। नेपाल के लिए यह बहुत गम्भीर मुद्दा है और हमारे लिए भी, क्योंकि नेपाल की सीमाएँ भारत से लगी हुई हैं और दोनों देशों के नागरिक एक-दूसरे के देश में बिना किसी पासपोर्ट और वीजा के आवागमन करते हैं। नेपालियों की एक बड़ी संख्या भारत में न केवल निवास करती है बल्कि सेना से लेकर तमाम सरकारी और निजी सेवाओं में भी सक्रिय है। दूसरी सबसे बड़ी बात यह है कि नेपाल की सीमाएं चीन से भी जुड़ी हुई हैं। भारत का चीन से विवाद वर्ष 1962 के युद्ध के बाद से ही चल रहा है। इस युद्ध में चीन ने भारत की हजारों किलोमीटर जमीन हड़प ली थी। इस मुद्दे का समाधान न हो, इसलिए वह आये दिन नये-नये विवाद पैदा करता रहता है। संयुक्त राष्ट्र से लेकर हर वैश्विक मंच पर चीन भारत का विरोध और पाकिस्तान का समर्थन करता है। मुख्य मुद्दा यह है कि नेपाल में लोकतंत्र का विरोध क्यों होने लगा, राष्ट्र का धर्मनिरपेक्ष दर्जा समाप्त कर हिन्दू राष्ट्र बनाने की मांग क्यों उठने लगी। इसके प्रत्यक्ष तौर पर दो ही कारण दिखायी देते हैं। पहली बात तो यह कि लोकतंत्र के नाम पर चीन में माओवादियों का शासन रहा। माओवादियों का चीन से प्रेम जग जाहिर है। नेपाल में भी यही हुआ, चाहे जो लोकतांत्रिक सरकार रह हो, सभी ने चीन से नजदीकी बढ़ायी। कई ऐसे मौके भी आये जब नेपाल सरकार ने भारत का विरोध किया। स्वाभाविक है भारत से विरोध नेपाल के नागरिकों के गले के नीचे नहीं उतरा क्योंकि भारत में उनके रोटी-बेटी के सम्बंध भी हैं। दूसरी बात यह है कि दुनिया में एकमात्र हिन्दू राष्ट्र नेपाल ही था जिसे बाद में वहां की सरकार ने धर्मनिरपेक्ष बना दिया। नेपाली नागरिकों की नजर में जब नेपाल हिन्दू बहुल है तो उसे धर्मनिरपेक्ष कैसे बनाया जा सकता है। राजशाही के समय नेपाल में जो स्थिरता थी, शांति थी और सुरक्षा थी वह लोकतांत्रित सरकार आते ही समाप्त हो गयी। ऐसे में नेपाली नागरिकों का यह कहना कि राजा आओ देश बचाओ गलत नहीं माना जा सकता। एक भारत है जो है तो हिन्दू बहुल लेकिन इंदिरा गांधी ने इसे संवैधानिक रूप से धर्मनिरपेक्ष बना दिया। आज स्थिति यह है कि वोटों के लालच में हिन्दुओं का ही एक वर्ग हिन्दुओं का विरोधी बनकर खड़ा हो जाता है। भारतीयों को कम से कम नेपाली नागिरकों से ही इस मामले में कुछ सबक सीखना चाहिए।